दोहरी ज़िंदगी (Dohri Zindagi)
राजस्थान की लोक कथा पर आधारित एक चित्र कहानी
Hindi |100 pages
चित्र और डिज़ाइन : शेफाली जैन
कहानी : विजयदान देथा
अनुवाद : कैलाश कबीर
राजस्थान कि इस लोक-कथा में जब गाँव के सेठ-सेठानी दहेज़ के लालच में अपनी बेटियों से छलावा करते हैं तो बेटियां घर छोड़ने की ठान लेती हैं। वे ख़ुद को नए नाम देती हैं, बीजां और तीजां, और भाग निकलती हैं। पर क्या गाँव वाले उन्हें इतनी आसानी से जाने देंगे? और क्या बीजां और तीजां मिलकर एक नयी ज़िंदगी बसा पाएंगी ...?
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"ऐसी बातों को न घोड़े पकड़ सकते हैं, न हवा. बस्ती के लोग जानबूझकर कानों में तेल डाले हुए थे. खुसुर-फुसुर सुनी भी तो ऊपर ढक्कन ढांप दिया. कपड़ों में कौन नंगा नहीं है? आगे होकर बात उठाने की हिम्मत कौन करता? बड़ों के पत्थर भी पानी पर तैरते हैं. सूरज के बगैर चल सकता है, मगर महाजन के बगैर एक पल भी नहीं चल सकता. सर झुकाये, सभी गर्दन खुजाते रहे. अगुवाई कौन करे? ऐसी अनहोनी आज तक न तो देखी और न सुनी, पर किसी का मौन नहीं टूटा. जिसका सिर खुजाये, वो होंठ खोले! सभी जानकर अनजान बने हुए थे".
"तुम्हारी प्रीत निहारकर मेरा जीवन सार्थक हो गया. मैं इस जमात का सरदार हूं. तुम बेखौफ यहां घरवास करो. इस बावड़ी के करीब ऐसा इकथम्भा महल खड़ा करूंगा कि राजा तक को रश्क हो. राज्य के खजाने में चाहे उल्लू बोलें, पर तुम्हें कभी कोई कमी नहीं होगी. मरजी मुताबिक तुम्हारी छोटी-बड़ी तमाम इच्छाएं पूरी होंगी. तुम्हारे खालिस प्यार के दरसन से मुझे जो सुख मिला है, उसका एहसान मैं कभी नहीं चुका सकूंगा. औरतों के सिवाय मर्द की छाया भी तुम्हारी ओर तेज नजर से नहीं देख सकेगी! अब इस इकथम्भे महल में जी-भरकर रंगरलियां मनाओ.’
सरदार के हाथ का इशारा पाकर उन्होंने पीछे मुड़कर देखा तो सामने सफेद झक इकथम्भा महल दिप-दिप कर रहा था! कैसी बेमिसाल जालियां और कैसे अनोखे झरोखे! भीतर रोशनी जगमगा रही थी. बाहर तेरस की चांदनी चंवर डुला रही थी.
अपनी प्रीत का ऐसा वरदान तो नहीं जाना था! दोनों इकथम्भे महल में घुसीं तो आक-वाक रह गयीं! केसर का आंगन. गुलाल की दीवारें. ईंगुर की छत. कमल का पलंग. गुलाब के फूलों की सेज. वे खुशी के झूले पर झूलने लगीं."
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